Friday 8 January 2016


बहता हुआ !!

कितनी बंजर है मेरी ज़मीन
फीका पडा है आसमान
भीगी पलकों से देखती हू
लगता है सब बहता हुआ

सोच की चादर को ओढ़ के
करती हू जब जब दुआ
कुछ ऐसा उलज जाती हू
जो फिर ना कभी सवर सका
















धीरे से चलने की कोशिश मे
रखती हू कदम नया
डगमगा जाता है!! मेरे भीतर का दायरा !!

फिर कभी जब बाहो के
घेरे मै बनाया करती हू
गुमसुम मधम मधम
ख्यालो मे कहती  हू
कितना रिक्त है लम्हा
हम दोनों के दरमियाँ !!


                                                                                                                     शिल्पा अमरया